उलाहना
लघु कथा
उलाहना
आज सास बहू दोनो का उपवास था ।दोनो को दिन मे एक ही समय शाम को खाना था।बहू बाजार गई हुई थी और शाम तक नही लौटी थी।सासू जी को तेज भूख लगी थी।सोचा बना कर कुछ खा लूँ पर पल भर मे ही उन्हे एक वर्ष पूर्व की घटना याद आ गयी।
उस दिन भी उन दोनो ने व्रत रखा था।बहू बाहर गई हुई थी।जब बहुत देर तक वह नही आई तो उन्होने खाना बना कर खा लिया था।आते ही जब बहू को पता चला कि सास खाना खा चुकी हैं तो उसने बड़ी रुखाइ से कहा
--"मै तो आपकी वजह से जल्दी-जल्दी भाग कर आई हूँ,आपने खाना खा भी लिया।मुझे पहले से पता होता तो मै मम्मी के घर से खा पी कर आराम से आती।...थोड़ी देर तो इंतजार कर लिया होता मम्मी जी ।'
पिछली इस घटना का घ्यान आते ही सास ने बहू का इंतजार करना ही ठीक समझा।उन्हो ने खाने की सब तैयारी करली थी।सोचा था उसके आते ही पूड़ी-पराठे गरम बना लेंगे।बहू देर से ही नही काफी देर से आइ थी।चाहते हुये भी सास ने उलाहना नही दिया कि "आने मे इतनी देर क्यों कर दी ,बहुत देर से भूख लगी है'....क्यो कि वह जानती थीं कि बहू के पास जवाबों का खजाना है।कोइ न कोइ कटु जवाब वह जरूर दे देगी और मै कइ दिन तक मन ही मन सुलगती रहूँगी।
अत: उसने यथा सम्भव सहज दिखने का प्रयास करते हुये कहा -"बहू पराठे बनाउँ या पूड़ी ?'
बहू झल्लाये स्वर मे बोली --"क्या..... अभी तक आपने खाना नही खाया ?...एक दिन मै घर पर नही थी तो बना कर खा लेतीं न,इतनी देर तक इंतजार करने की क्या जरूरत थी।...मैं तो खा कर आइ हूँ।'
सास असमंजस मे थी कि एक दिन जब खा लिया था तो सुन ने को मिला कि " अकेली खा कर बैठ गई थोड़ा इंतजार नही कर सकती थीं।'...आज इंतजार कर रही हूँ तो भी उलाहना कि "बना कर खा लेती, इंतजार करने की क्या जरूरत थी।'
सास कहना चाहती है कि " एक फोन ही कर दिया होता कि आप इंतजार मत करना, मैं खाकर आउँगी' किन्तु नही,कहने का कोइ फायदा नही।हर बात पर बहू का उलाहना सुनना अब शायद हर उस सास की नियति है जो बेटे- बहू पर आश्रित है।
---पवित्रा अग्रवाल
पिछली इस घटना का घ्यान आते ही सास ने बहू का इंतजार करना ही ठीक समझा।उन्हो ने खाने की सब तैयारी करली थी।सोचा था उसके आते ही पूड़ी-पराठे गरम बना लेंगे।बहू देर से ही नही काफी देर से आइ थी।चाहते हुये भी सास ने उलाहना नही दिया कि "आने मे इतनी देर क्यों कर दी ,बहुत देर से भूख लगी है'....क्यो कि वह जानती थीं कि बहू के पास जवाबों का खजाना है।कोइ न कोइ कटु जवाब वह जरूर दे देगी और मै कइ दिन तक मन ही मन सुलगती रहूँगी।
अत: उसने यथा सम्भव सहज दिखने का प्रयास करते हुये कहा -"बहू पराठे बनाउँ या पूड़ी ?'
बहू झल्लाये स्वर मे बोली --"क्या..... अभी तक आपने खाना नही खाया ?...एक दिन मै घर पर नही थी तो बना कर खा लेतीं न,इतनी देर तक इंतजार करने की क्या जरूरत थी।...मैं तो खा कर आइ हूँ।'
सास असमंजस मे थी कि एक दिन जब खा लिया था तो सुन ने को मिला कि " अकेली खा कर बैठ गई थोड़ा इंतजार नही कर सकती थीं।'...आज इंतजार कर रही हूँ तो भी उलाहना कि "बना कर खा लेती, इंतजार करने की क्या जरूरत थी।'
सास कहना चाहती है कि " एक फोन ही कर दिया होता कि आप इंतजार मत करना, मैं खाकर आउँगी' किन्तु नही,कहने का कोइ फायदा नही।हर बात पर बहू का उलाहना सुनना अब शायद हर उस सास की नियति है जो बेटे- बहू पर आश्रित है।
---पवित्रा अग्रवाल
Labels: लघु कथा
5 Comments:
shikha ji aapko bhi nav varsh mangalmay ho ,mere blog par aane aur tippani dene ke liye dhanyvad.
Namastey pavitra ji. Main aapki kathaye roje padhta hu. Aapki kathaye bhut hi espashta aur saral marmik h, apki kathao me kuch n kuch sikh lene jesi bat hoti h, mujhe is blog ka kuch din pahle pata chala aur ab main is blog ka bhut bada pankha(FAN) ho gya hu, meri b apni swayam ki swarachit kathayen h jo main aapke sath batna chahta h, main kis tarah apni rachnayen bhej sakta hu is blog par, krupaya mujhe bataye, apke utter ka intjar rhega. Dhanywad
dhanyavad rahul ji ,jankar achcha laga ki aapko meri laghu kathaye achchi lagati hai ,kuch net patrikaye hai jo laghu katha chapati hai, aap search karke vahan bhej sakate hai.mere blog me meri hi laghu kathayen rahati hai.
Dhanywad sujhav dene ke liye. Aap koi 1-2 net patrika ka naam bata sakti h?
net patrika ke nam --
www.laghukatha.com
www.rachanakar.org
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