भाई का घर
लघुकथा
भाई का घर
पवित्रा अग्रवाल
बाजार में अचानक भाभी से मुलाकात हो गई ,उन्होंने बताया कि कल अपने भाई के पास दिल्ली जा रही हूँ ’
भाई के घर जाने की बात सुन कर कर मुझे चार पांच साल पुरानी एक बात याद आ गई . उस दिन मैं इन्ही भाभी के घर आई हुई थी तभी मेरी एक दोस्त का फोन आ गया ,वह मुझे अपने घर बुला रही थी .मैं ने कहा ‘आज तो मैं अपने भाई के घर आई हुई हूँ .आज नहीं आ पाऊंगी ’
भाभी ने चिढ़ कर कहा था – ‘ यह घर तुम्हारे भाई का ही नहीं, मेरा भी है फिर आपने यह क्यों कहा कि भाई के घर आई हुई हूँ , भाभी का भी तो कह सकती थीं ’
यह शिकायत सुन कर मैं अवाक रह गई थी ,यह सवाल इतना बेतुका और अप्रत्याशित था कि उसी समय कोई जवाब नहीं सूझा .मैं पूछना चाहती थी कि जब आपके मम्मी पापा आपके पास आते हैं तो मिलने वालों से क्या कहते होंगे ?
यह तो मैं ने किसी को कहते नहीं सुना कि दामाद के घर जा रहे हैं.निश्चित रूप से बेटी का ही नाम लेते होंगे और लड़के की तरफ वाले बेटे के पास जाने की बात कहते होंगे .
आज उनके मुँह से ‘भाई के घर’ जाने की बात सुन कर पूँछने का मन हुआ कि ‘भाभी के घर जा रही हूँ क्यों नहीं कहा .पर कहने का कोई फायदा नहीं था क्यों कि वह कोई न कोई कुतर्क देकर अपने को सही साबित करने में माहिर है और मैं भी किसी बहस से बचना चाहती थी .
email - agarwalpavitra78@gmail.com/
पवित्रा अग्रवाल
Labels: लघुकथा
3 Comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-02-2019) को "आईने तोड़ देने से शक्ले नही बदला करती" (चर्चा अंक-3258) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/02/2019 की बुलेटिन, " भारतीय माता-पिता की कुछ बातें - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जी सही कहा। कुतर्क से बचने में ही भलाई होती है।
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