Thursday, October 1, 2015

आस- निराश

लघु कथा             

                 आस- निराश                                              
                                                पवित्रा अग्रवाल

       "सुनो तुम पूरी जिंदगी बेटा न होकर चार बेटियां होंने का गम पाले रहीं .तुम भाभी को बहुत भाग्यशाली मानती रहीं और वो खुद भी कि वह दो बेटों की माँ हैं .शायद वह तुम पर भी तरस खाकर पूरी जिंदगी अहसास दिलाती रहीं कि  तुझे चार बेटियां ही है .बेटियों को पढ़ाओ – लिखाओ फिर शादी में खूब खर्च करो पर शादी के बाद उन्हें तो दूसरे घर ही जाना है.बुढ़ापे में तो बेटा ही काम आता है .”
     “पर बात गलत भी तो नहीं  है ,आज हम बीमार हो जाएँ तो क्या बेटियां अपना घर ,अपनी जिम्मेदारियां छोड़ कर हमारे पास आकर रह सकती हैं ? सहारा तो बेटे का ही होता है .”
     “किस ज़माने में जी रही हो ? अपने आस पास नजर डालो तो पता चलेगा कि ज्यादातर बुजुर्ग अकेले ही रह रहे हैं.बड़ा शहर है,बड़ी बड़ी कंपनी यहाँ है पर बेटे या तो विदेश में है या फिर दूसरे शहर में रह रहे हैं  क्यों कि पत्नी सास ससुर के साथ नहीं, स्वतन्त्र रहना चाहती है .बेटे  चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे .”
     “जिठानी जी तो बहुत खुश हैं “
“ हाँ उनके बेटे पिता के साथ व्यापार में ही लगे हैं इस लिए बाहर न जा पाना उनकी मजबूरी है पर सुखी वे भी नहीं हैं.आज ही भैय्या बाजार में मिल गए थे ,बहुत उदास थे .दोनों बेटे शादी के बाद अलग रहने लगे हैं. भाभी तो पहले ही बीमार थीं , अब तो बिस्तर पकड़ लिया है ....हम भाग्य शाली हैं कि हमारे बेटियां ही हैं, तकलीफ में आकर देखलें तो बहुत अच्छा है न आ पाएं तो उतना दुःख नहीं होंगा .पर जिस पर आस लगा रखी हो वह साथ न दे तो आदमी लुटा सा महसूस करता है .


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-- ईमेल - agarwalpavitra78@gmail.com

-पवित्रा अग्रवाल




 

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