दखल
लघुकथा
दखल
पवित्रा अग्रवाल
माँ ने बहू बेटे को तैयार हो कर बाहर जाते देख कर पूछा --"सुबह सुबह तुम दोनो कहाँ जा रहे हो ?'
"माँ अस्पताल जा रहे हैं।'
"क्यों,किस की तबियत खराब है ?'
बेटे ने सकपकाते हुए कहा --"माँ आपकी बहू फिर माँ बनने वाली है।हम टैस्ट करा कर देखना चाहते हैं कि गर्भ में लड़का है या लड़की ।'
"क्या करोगे पता कर के ?'
"करना क्या है माँ लड़की हुई तो सफाई करा देंगे।'
"तू ये क्या कह रहा है ?...आज कल लड़कियां भी किसी से कम नहीं हैं ।'
"हाँ माँ यह मैं जानता हूँ पर हमारे दो बेटियाँ तो हैं न।क्या आप नहीं चाहतीं कि हमारे एक बेटा भी हो ? ....अब मैं इतना धन्ना सेठ तो हूँ नहीं कि तीन तीन बेटियों की अच्छी परवरिश कर सकूँ।...अपने यहाँ लड़कियों की शादी में कितना दहेज चलता है क्या आप नहीं जानतीं ?...वैसे भी बाप दादों का दिया तो मेरे पास कुछ है नहीं ?'
मां ने दुखी स्वर में कहा --"तुम्हारी यह बात तो सही है बेटा कि हम जिन्दगी भर बस गुजारा ही कर पाए, ...दो कमरे का एक मकान भी नहीं बना सके ,पर ...
"पर वर कुछ नहीं माँ,मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ लेकिन जिन्दगी के कुछ फैसले हम खुद लेना चाहते हैं...प्लीज इसमें दखल मत दीजिए ।'
कहते हुए दोनो घर से बाहर चले गए।
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Labels: लघु कथा
4 Comments:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-01-2015) को "एक और वर्ष बीत गया..." (चर्चा-1848) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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नव वर्ष-2015 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह बात पहले भी तो सोच सकते थे, जो अब सफाई की नौबत आ रही है , मतलब बेटा हुआ तो खर्च चलाना सम्भव हो जायेगा ,बेटी होने पर नहीं ,बेटियां अपने भाग्य का ले कर आती हैं , और वे माँ बाप का भाग्य बना भी देती हैं ,और बेटे उन्हें सड़क पर छोड़ देते हैं ,अपना गणित अपनी समझ ,अच्छी रचना हेतु पवित्रा जी धन्यवाद
धन्यवाद महेंद्र जी अपने विचार मुझ तक पहुँचाने के लिए .
धन्यवाद शास्त्री जी .
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